Saturday, November 29

कन्या कुमारी

स्मारक के किनारे, चंदा बहता
जैसे जल से उभरे योगी,
शनि की छटा निराली
किसी बारूद के ढेर की तरह,
जो फूटे अचेत में, कहीं गहरे समंदर में
पर जन्म ले चेत में, प्रत्यक्ष रूप में,
न बोल, न समस्या, केवल आनंद
और उसके संवाद, उसके गीत,
तपस्या के पालक, जननी के जनक|

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Sunday, November 16

आलन्घन

महकते अँधियारों में
मर-मिटने की बात सोची,
झिझक थी तो अपने-आप से
जैसे देव-द्वार की रेखा;

प्रकृति देख रही थी, भावुक,
ज़हन में कविता लिए,
पूछ रही थी, विश्वस्त,
मेरे उत्तर स्वयं ही बोलती;

अभिलाषा का पानी बह गया था,
ले गया था नीति-धर्म के सेतु,
सामने था मैं, प्रतिबिंब बिन काया,
हाथ बढ़ाऊं तो ईश्वर का निवाला|

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