Friday, June 15

नवांकुर

पूँछो,
शेष की फुंकार में
बरामद हुई रोशनी कितनी?
क्योंकि
मुझे तो न मिली, न दिखी,
न मसले चंपा की महक
न ही तेरे नैन की मस्ती,
न ही क्षीर में बँटने वाला अमृत|

पूँछो,
तो मिला क्या? कुछ सही तो?
हाँ!
सौंधी मिट्टी की धसक से
जब अपनी ऐनक पोंछी
तो पाया नया उजाला,
किसी आदित्य का नहीं, किसी ग्रहण का नहीं,
पर सिर्फ किसी सिमटी, खोई, त्यागी मशाल का,
न जाने किस ब्रह्म-अस्तित्व से जल रही थी, किस के इंतज़ार में;

जब पूँछा,
तब आया जवाब पेड़ों को कंघी करते
विश्व को लपेटे शरारत भरे अँधेरे से|
तब मालूम चला
पालन-हार दीप का,
हर द्वारे, हर दिल में,
है कोई दहशत, कोई सन्नाटा:
किलकारी भंग करे खामोशी को
ब्रह्म को जगा, शिव को पार्वती से जुदा करे,
बैराग में से निकलें अंकुर,
अन्धकार को फिर प्राप्त करने की चेष्टा से जियें
रोशनी के पुषित वे अमर द्रोही|

Labels:

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home