Thursday, January 23

फ़ैसला

भोले, तू कहाँ चला गया था रे?
मेज पर किताबें रखी छोड़े,
सूरज की कॅंपन को अनदेखा करे,
जाड़े की रेशम-सी गलियों के बीच,
कहाँ निकल गया था, रे?

कौनसा संकल्प तू ने ऐसा बाँध लिया था,
कि भूल गया तू इस गुलिस्ताँ के
पाबंद मज़े को, नाज़ुक मोहब्बत की लड़ी को?
हैं रे? किस आग में झुलसा ऐसा,
कि सब ग़म को पी गया, न हँसते, न गाते?

देख! यहाँ आसमाँ के रंग नहीं बदले,
न वे कोने-कचुले जहाँ तेरे चर्चे रहते;
उसी उम्र में फिर मिलना हुआ
कोई रंजिश बिना, जैसे बिन मौके की बरसात
आज गिरी मेरे आँगन में, न दस्तक, न माफ़ी|

तू आया है तो आराम कर तनिक,
मेरी आँखों के सवाल हैं गुम, हैं अंजाने,
तू सुना, अरसा हुआ तेरी ज़ुबान सुने,
क्योंकि यही सामान ले कर जाना है मुझे,
कहीं दूर, जहाँ तेरी यादें हों, तू न हो|

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Sunday, January 5

बल

दो मिनिट में उठून्गा
सरदार के भेस में निकलूंगा
सीली टहनियों में थोड़ी आग लगाऊँगा
तड़कते मच्छरों की तरह मोस दूँगा|

इन भीने क़दम का रुख़ कोई समझे न
कि सोई ताक़त कब होशियारी से जग पड़ी,
जब तक जान रहे, कर दूँगा तमाम और भस्म
चार दिशा में हाहाकार, जग भर में जयजयकार|

प्रण है पर्याप्त, समंदर पर है सेतु बाँधना-
इस रौ के आवेश में, छलाँग है लगानी
तरंगों से तारों तक, मेरे बनानेवाले तक,
प्रार्थनारूपी शस्त्र से भेदूँगा, रोम-रोम को|

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