Sunday, January 5

बल

दो मिनिट में उठून्गा
सरदार के भेस में निकलूंगा
सीली टहनियों में थोड़ी आग लगाऊँगा
तड़कते मच्छरों की तरह मोस दूँगा|

इन भीने क़दम का रुख़ कोई समझे न
कि सोई ताक़त कब होशियारी से जग पड़ी,
जब तक जान रहे, कर दूँगा तमाम और भस्म
चार दिशा में हाहाकार, जग भर में जयजयकार|

प्रण है पर्याप्त, समंदर पर है सेतु बाँधना-
इस रौ के आवेश में, छलाँग है लगानी
तरंगों से तारों तक, मेरे बनानेवाले तक,
प्रार्थनारूपी शस्त्र से भेदूँगा, रोम-रोम को|

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