वह तारा नर्तकी
वहाँ दीवाल पर नाचते हैं जिन्न,
कई रंगों में भस्म, कई घुटन के ज़ख़्म,
लेकिन न प्रेत कोइ कहने का वो
जो अपनी बदमाशी के आँगन में न छेड़े चिंगारी को,
हर द्रव्य की जड़ में ने खन्खोले चेतन को|
कई रंगों में भस्म, कई घुटन के ज़ख़्म,
लेकिन न प्रेत कोइ कहने का वो
जो अपनी बदमाशी के आँगन में न छेड़े चिंगारी को,
हर द्रव्य की जड़ में ने खन्खोले चेतन को|
Labels: poetry
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