क़ैद
घरौंदों का तमस, जैसे बू सुर्ख
भुनते दरख़्त की, ज्यों
इक फूँक वह बवंडर
वही प्राण-धारा, चेतना की सखी युगांतरों से|
चंदन से लिपटे इन साँपों से करो गुहार,
कहाँ-कहाँ है दावानल, किधर सड़ते बीज;
जोखम से निडर इस कवच से माँगो
थोड़ा भय, थोड़ी हया, कि भूल न जाएँ
हर चित्त में देव, हर देव को पुष्पांजली|
भुनते दरख़्त की, ज्यों
इक फूँक वह बवंडर
वही प्राण-धारा, चेतना की सखी युगांतरों से|
चंदन से लिपटे इन साँपों से करो गुहार,
कहाँ-कहाँ है दावानल, किधर सड़ते बीज;
जोखम से निडर इस कवच से माँगो
थोड़ा भय, थोड़ी हया, कि भूल न जाएँ
हर चित्त में देव, हर देव को पुष्पांजली|
Labels: poetry
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