तप
गहन ज़हन में प्रदत्त
न सीमा, न बेला का ग़ुलाम,
चूर स्वयं के आनंद में, जैसे
लाल चाँद में नहाए सागर की छटा;
जब छल से निकले कोई कश्ती
तब बन जाए वह कायनात का अभिन्न अंग,
पूजक और पूज्य दोनों ही भीतर,
केवल दिखे, अन-दिखे पूजा
और उसके कुछ हज़ार नाम;
भीड़ के चेहरे लड़ें, मरें, कटें
उनके लिए जो देखें, जिनका न रहे ईमान,
पर ज़िंदगी का वह मद-मस्त रहे तपस्वी,
रहे आसमाँ और ज़मीं की डोर|
न सीमा, न बेला का ग़ुलाम,
चूर स्वयं के आनंद में, जैसे
लाल चाँद में नहाए सागर की छटा;
जब छल से निकले कोई कश्ती
तब बन जाए वह कायनात का अभिन्न अंग,
पूजक और पूज्य दोनों ही भीतर,
केवल दिखे, अन-दिखे पूजा
और उसके कुछ हज़ार नाम;
भीड़ के चेहरे लड़ें, मरें, कटें
उनके लिए जो देखें, जिनका न रहे ईमान,
पर ज़िंदगी का वह मद-मस्त रहे तपस्वी,
रहे आसमाँ और ज़मीं की डोर|
Labels: poetry
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