Tuesday, June 7

मुट्ठी भर आसक्ति

रोशनी का दाना आज मुकाम पे गिरा है
कई साल बाद मन की मैहफ़िल में शरीक़ हुआ है,
मेरे उस रेगिस्तान में आँसू की झड़ी सा आया है
जहाँ पीपल के वृक्ष लहलहाते नहीं, हवा चलती नहीं|

यहाँ मन खोलने के द्वार हैं बंद,
शब्द में फँसे हुए अभिमन्यु हैं सब,
जवाब-सवाल बेशुमार हैं, पहचान का ठप्पा हैं,
पर पहचानने वाला सूरज का घुड़सवार नहीं|

अब जानिए मेरी मेहरबानी, कि इस वीराने में
वह आया है, ज़िंदगी और मौत को एक में समेटे हुए,
वह क्रांति की चिल्लाती मशाल नहीं, जो भस्म करे,
न हवा से लड़ने वाला दीप, जो कवियों का शिकार बने|

सिर्फ़ कहीं चमकता इंसान का आवास है,
जहाँ बारिश का नाच है, मैले मौसम की खुश्बू है,
ज़िंदगी के अथक प्रवासों में मेरी बरक़रार स्मृति है
जो भटकते मुझ को भी देती है उस की चौखट के दर्शन|

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